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रोशनी के घर / रजनी मोरवाल
Kavita Kosh से
रोशनी वाले मकाँ ऊँचाइयों में खो गए।
मंज़िलों पर और मंज़िल
बस सलाखों औ’ झरोखे,
काँच के दर औ’ दरीचे
ज्यों छलावे और धोखे,
रेशमी पर्दे कहीं तन्हाइयों में खो गए।
ज़ेवरों के बीच कितने
ख़्वाब तन को डस रहे हैं,
ओढ़कर मुस्कान झूठी
महफ़िलों में हँस रहे हैं,
अजनबी बनकर बदन परछाइयों में खो गए।
फ़र्श पर कालीन महँगी
पर घरोंदें खोखले हैं,
ये दिखावे के सलीके
दोमुँहे औ’ दोगले हैं,
शहर के रिश्ते अँधेरी खाइयों में खो गए।