Last modified on 25 अक्टूबर 2010, at 11:17

रोशनी बनकर पिघलता है उजाले के लिए / गिरिराज शरण अग्रवाल

रोशनी बनकर पिघलता है उजाले के लिए
शम्अ जल जाती है घर को जगमगाने के लिए

हमने अपनों के लिए भी मूँद रक्खा है मकाँ
पेड़ की बाहें खुली हैं हर परिंदे के लिए

प्रेम हो, अपनत्व हो, सहयोग हो, सेवा भी हो
सिर्फ़ पैसा ही नहीं, हर बार जीने के लिए

जितने भी काँटे हैं पग-पग में वे चुनते जाइए
रास्ते को साफ़ रखना आने वाले के लिए

एक दिन जाना ही है, जाने से पहले दोस्तो
यादगारें छोड़ते जाओ, ज़माने के लिए