भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोशनी / राजा पुनियानी
Kavita Kosh से
उजाला ही है वह
सब कह रहे हैं
हाँ, वही तो उजाला है
उसी की तरह जो दिखता है उजाला
सब कह रहे हैं
उजाले के नुकीले दाँतों में अटके हैं
माँस के टुकड़े
वह बाँहों में विकास की गठरी दबा के लाया है
शासक की भाषा बोलता है
सारे गाँव, सारी बस्ती, सारे बागान
जा रहे हैं चूहों की तरह
उसके पीछे-पीछे
हाँ, यह वही उजाला है
होंठों में दबाया है जिसने
सिगरेट की तरह आदमी को
अब जाके सुलग रहा है इनसान
ऊपर उठता हुआ धुआँ
क्या सभ्यता का है ?
मूल नेपाली से अनुवाद : कालिका प्रसाद सिंह