भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रो रहा सिसकारियां भर देश का फ्यूचर / सर्वेश अस्थाना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रो रहा सिसकारियां भर देश का फ्यूचर
एक कमरे में भरी हैं चार कक्षाएं
ऊँघती हैं ऊबती हैं सभी शिक्षाएं।
मिल रहा है अब प्रमोशन चंद रुपयों से
मूल्य का अंकन नही है मात्र भिक्षायें।
अब प्रधानों के है जूते चाटता टीचर,
रो रहा सिसकारियां...

जो है आगत भोर, उसकी लघु कलाई है
उस कलाई की व्यवस्था ज्यों कसाई है ।
दी थमा इक तश्तरी फैलाएगी दिन में,
मध्य भोजन ने हर इक पुस्तक हटाई है।
बन रहा बचपन फकत इक भूख का नौकर।
रो रहा सिसकारियां....

हर सुनहरे कल के कपड़े फाड़ डाले हैं
मार्ग में नन्हे कदम के सिर्फ जाले है
योजनाओं के समंदर सैकड़ों झूमें
हर लहर में मोतियों के दस घोटाले हैं।
टीचरों ने खुद लगाए स्वार्थ के ट्यूटर।
रो रहा सिसकारियां....