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रो रही बरखा दिवानी / शैलेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
रात के पहले प्रहर से
रो रही बरखा दिवानी
हो गई है भोर लेकिन
आँख का थमता न पानी
आ गई फिर याद निष्ठुर
चुभ गये पिन ढ़ेर सारे
है किसे फुर्सत कि बैठे
घाव सहलाये-संवारे
मन सुनाता स्वत: मन को
आपबीती मुँहजबानी
नियति की सौगात थी
कुछ दिन रहे मेंहदी-महावर
किन्तु झोंका एक आया
और सपने हुए बेघर
डाल से बिछुड़ी अभागिन
हुई गुमसुम रातरानी
कौंधती हैं बिजलियाँ फिर
और बढ़ जाता अँधेरा
उठ रहा है शोर फिर से
बाढ़ ने है गाँव घेरा
लग रहा फिर पंचनामा
गढ़ेगा कोई कहानी.