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रौदा उग रे ऐंगना / अमरेन्द्र

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रौदा उगरे ऐंगना, मुर्गी देवौ चखना
ठंडा सें ठिठुरी रहलोॅ छैµ बेटा, भतीजा, भैगना ।

ई माघोॅ के पल्ला मेॅ, भीत-दुआरी खुल्ला मेॅ
केना रहतै बुतरू, ओढ़ना लेॅ कानै छै बीरना ।

सब्भे आपनोॅ घुसलोॅ घोॅर, होकरौ मेॅ सब बोरसी तोॅर
रुय्यो तोॅर भी जाड़ा लागै, की फीरू ई ओढ़ना ।

कपड़ा नै एक हालोॅ के, कम्बल ई छोॅ सालोॅ के
छाती ढकोॅ तेॅ खुल्ला रहै छै माथोॅॅ नीचूँ ठेहुना ।

शीतलहरी छै जोरोॅॅ पर, प्रान रहै छै ठोरोॅ पर
जेना कि काटै छी जिनगी, के काटै छै एहना ?

होॅ-होॅ हावा बहै छै, हड्डी-हड्डी डसै छै
थर-थर काँपांै, पुरबा में पीपर के पत्ता जेहना ।

चहियौं अगर जों कीनै लेॅ कुछ बेची केॅ पिहनै लेॅ
पौरकैं बिकले साहू के कर्जा दै मेॅ सब गहना ।

चेथरी-चेथरी साटै छी, जाड़ केन्हौं केॅॅ काटै छी
की करवै, जों आवी गेलै हेनोॅ हाल में पहुना ।