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रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी / याक़ूब यावर
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रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
फिर भी सूरज से मिरी हम-सफरी रहना थी
मौसम-ए-दीद में इक सब्ज-परी का साया
अब गिला क्या कि तबीअत तो हरी रहना थी
मैं कि हूँ आदम-ए-आजिम की रिवायत का नकीब
मेरी शोखी सबब-ए-दर-ब-दरी रहना थी
आज भी जख्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख-ए-निहाल
नख्ल-ए-ख्वाहिश पे वहीे बे-समरी रहना थी
साज़-ओ-सामान-ए-तअय्युश तो बहुत थे ‘यावर’
अपने हिस्से में यही हर्फ-गरी रहना थी