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रौशनी लेने चले थे और अंधेरे छा गए / शमीम जयपुरी
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रौशनी लेने चले थे और अंधेरे छा गए
मुस्कुराने भी न पाए थे कि आँसू आ गए
आज कितने दोस्त मुझ को देख कर कतरा गए
अल्लाह अल्लाह अब मोहब्बत में ये दिन भी आ गएर
जब भी आया है किसी को भूल जाने का ख़याल
यब-ब-यक आवाज़ आई लीजिए हम आ गए
आह वो मंज़िल जो मेरी ग़फ़लतों से गुम हुई
हाए वो रहबर जो मुझ को राह से भटका गए
फिर ये रह रह कर किसी की याद तड़पाती है क्यूँ
अब तो हम तर्क-ए-मोहब्बत की क़सम भी खा गए
देख कर उन की निगाह-ए-लुत्फ़ इक मुद्दत के बाद
क्या बताएँ क्या ख़याल आया कि आँसू आ गए
उन के ही क़दमों की आहट रात भर आती रही
दिल की हर धड़कन पे हम समझे कि वो ख़ुद आ गए
अब कौई दैर ओ हरम से भी सदा आती नहीं
हम तिरी धुन में ख़ुदा जाने कहाँ तक आ गए