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रौशनी है बुझी-बुझी अब तक / विनय मिश्र
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रौशनी है बुझी-बुझी अब तक ।
गुल खिलाती है तीरगी अब तक ।
एक छोटी-सी चाह मिलने की,
वो भी पूरी नहीं हुई अब तक ।
बात करता था जो ज़माने की,
वो रहा ख़ुद से अजनबी अब तक ।
देखकर तुमको जितनी पाई थी,
उतनी पाई न फिर ख़ुशी अब तक ।
मौत को जीतने की ख़ातिर ही,
दाँव पर है ये ज़िंदगी अब तक ।
मेरा क़ातिल था मेरे अपनों में,
मुझको कोई ख़बर न थी अब तक।