रौशन आरा / सुरेश चन्द्र शौक़
रौशन आरा !
तेरी शहादत की जो मैंने ख़बर सुनी तो
रो—सा पड़ा मैं
दिल पर इक बिजली —सी कौंधी
सोच के तपते सहराओं में जलने लगा मैं
उफ़ ये सोच के तपते सहरा!
उफ़ ये सोच के तपते सहरा!!
यह सब क्या है?
यह सब क्या है?
दुनिया इतनी ज़ालिम क्यों है?
दुनिया इतनी जाबिर क्यों है
दुनिया इतनी क़ातिल क्यों है?
आए दौर में क्यों यह पैदा करती है
‘चंगेज़’,’हलाकू’,’हिटलर’
क़त्लो—ग़ारत जिनका शेवा
जब्रो—जदल में जिनको लुत्फ़ आता है
जो अपनी ताक़त के नशे में
मासूमों के ख़ून से खेलें
जो शहरों में बम बरसा कर भूक और क़ह्त की फ़स्ल उगायें
शह्र —शह्र को ,बस्ती—बस्ती को जो क़ब्रिस्तान बनायें
जो मज़बूर बुढ़ापे को भी उसके घर से बेघर कर दें
जो मासूम लड़कपन के भी सीने को बारूद से भर दें
औरत को बेबस—सी पा कर जो बन जायें वहशी हैवाँ
जिन की काली करतूतों पर इन्साँ तो क्या रो दे शैताँ
उफ़ ये सोच के तपते सहरा!
उफ़ ये सोच के तपते सहरा!
कभी —कभी तो जी में यह आता है
मिट जाये यह ज़ालिम दुनिया
मिट जाये यह जाबिर दुनिया
मिट जाये यह क़ातिल दुनिया
इसका हर ज़र्रा मिट जाये
इसका हर रेज़ा मिट जाये
और फिर
एक नई दुनिया पैदा हो
उस में नये इन्साँ पैदा हों
जिनका चलन हो प्यार —महब्बत !
अपनों से, ग़ैरों से महब्बत!!
सबसे महब्बत !!
लेकिन ये सब बातें हैं, सपनों की बातें
और सपने कब सच होते हैं
लेकिन यह तो हो सकता है ‘रौशन आरा’
दुनिया की हर औरत तुझ जैसी हो जाये
और अगर ऐसा हो जाये
तो सब ज़ालिम मिट सकते हैं
तो सब जाबिर मिट सकते हैं
तो सब क़ातिल मिट सकते हैं
हम सपनों में खो सकते हैं
तो सपने सच हो सकते हैं
रौशन आरा !