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रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुये तो हैं / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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रौशन कहीं बहार के इम्काँ हुये तो हैं
गुलशन में चाक चंद गरेबाँ हुये तो हैं

अब भी ख़िज़ाँ का राज है लेकिन कहीं कहीं
गोशे रह्-ए-चमन में ग़ज़ल-ख़्वाँ हुये तो हैं

ठहरी हुयी है शब की सियाही वहीं मगर
कुछ कुछ सहर के रंग पर-अफ़्शाँ हुये तो हैं

इन में लहू जला हो हमारा के जान-ओ-दिल
महफ़िल में कुछ चिराग़ फ़रोज़ाँ हुये तो हैं

हाँ कज करो कुलाह के सब कुछ लुटा के हम
अब बे-नियाज़-ए-गर्दिश-ए-दौरां हुये तो हैं

अहल-ए-क़फ़स की सुबह-ए-चमन में खुलेगी आँख
बाद-ए-सबा से वदा-ए-पैमाँ हुये तो हैं

है दश्त अब अभी दश्त मगर ख़ून-ए-पा से "फ़ैज़"
सैराब चंद ख़ार-ए-मुग़ेलाँ हुये तो हैं