लंका काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास
दंडक
अंगद- जैसो तुम कहत उठायौ एक गिरिवर,
ऐसे कोटि कपिन के बालक उठावहीं।
काटे जो कहत सीस, काटत घनेरे घाघ (ऐंद्रजालिक)
मगर (जादू) के खेले कहा भट पद पावही।।
जीत्यो जो सुरेस रन, साप ऋषि नारि ही को,
सझुझहु हम द्विज नाते सझुझावहीं।
गहौ राम पाँय, सुख पाइ करैं तपी तप,
सीताजू कों देहु, देव दुदुभी बजावहीं।।39।।
वंशस्थ छंद
रावण- तपी जपी विपनि छिप्र ही हरौं।
अदेव द्वेषी सब देव संहरौं।।
सिया न दैहौं, यह नेम जी धरौं।
अमानुषी भूमि अवानरी करौं।।40।।
विजय छंद
अंगद-
पाहन तैं पतिनी करि पावन टूक कियो हर को धनु को रे?
छात्र-विहीन करी छनमैं छिति गर्व हरे तिनके बल को रे?
पर्वत-पुंज पुरैनि के पात समान तरे, अजहूँ धरको रे।
होइँ नरायन हूँ पै न ये गुन, कौन इहाँ नर वानर को रे?।।41।।
चंचरी छंद
रावण- देहिं अंगद राज तोकहँ, मारि बानराज को।
बाँधि देहिं विभीषनौ अरु फोरि सेतु-समाज कों।।
पूँछ जारहिं अच्छरिपु की, पाइँ लागहिं रुद्र के।
सीय कों तब देहुँ रामहिं, पार जाइँ समुद्र के।।42।।
अंगद- लंक लाइ गयौ बली हनुमंत, संतन गाइयो।
सिंधु बाँधत सोधि कै, नल छीर छीट बहाइयो।।
ताहि तोहिं समेत अंध, उखारि हौं उलटी करौं।
आजु राज कहाँ विभीषण बैठिहैं, तेहितैं डरौं।।43।।
(दोहा) अंगद रावन को मुकुट, लेकरि उड़îो सुजान।
मनौ चल्यौ यमलोक को, दससिर को प्रस्थान।।44।।
अंगद लै वा मुकुट कों, परे राम के पाइ।
राम विभीषन के सिरसि, भूषित कियो बनाइ।।45।।
लंकावरोध
पद्धटिका छंद
दिशि दच्छिन अंगद, पूर्व नील।
पुनि हनूमंत पश्चिम सुशील।।
दिशि उत्तर लक्ष्मण सहित राम।
सुग्रीव मध्य कीन्हे विराम।।46।।
संग यूथप यूथप बल विलास।
पुर फिरत विभीषन आस पास।।
निसि-बासर सब को लेत सोधु।
यहि भाँति भयौ लंका-निरोधु।।47।।
तब रावन सुनि लंका निरोध।
उपज्यो तन मन अति परम क्रोध।।
राख्यो प्रहस्त हठि पूर्व पौरि।
दच्छिनहिं महोदर गयो दौरि।।48।।
भयो इन्द्रजीत पश्चिम दुवार।
है उत्तर रावन बल उदार।।
कियौ विरूपाच्छ थित मध्यदेस।
करै नरांतक चहुँधा प्रवेस।।49।।
प्रमिताक्षरा छंद
अति द्वार द्वार महँ युद्ध भये। बहु ऋच्छ कँकूरन लागि गये।।
तब स्वर्न लंक मह सोभ भयी। जनु अग्निज्वाल महँ धूममयी।।50।।
मेघनाद युद्ध
(दोहा) मरकत मनि के सोभिजै, सबै कँगूरा चारु।
आइ गयौ जनु घात को, पातक कौ परिवारु।।51।।
कुसुमविचित्रा छंद
तब निकस्यो रावणसुत सूरो। जेहि रन जोत्यो हरि (इंद्र) बलपूरो।
तपबल माया तम उपजायो। कपिदल के मन संभ्रम छायो।।52।।
दोधक छंद
काहु न देखि परै वह योधा।
यद्यपि हैं सिगरे बुधि बोधा।।
सायक सौं अहिनायक साध्यो।
सोदर स्यौं रघुनायक बाँध्यो।।53।।
रामहिं बाँधि गयो जब लंका।
रावन की सिगरी गयी संका।।
देखि बँधे तब सोदर दोऊ।
यूथप यूथ त्रसे सब कोऊ।।54।।
स्वागता छंद
इंद्रजीत तेहि लै उर लायो। आजु काज सब मो मन भायो।।
के विमान अधिरूढ़िति धाये। जानकीहिं रघुनाथ दिखाये।।55।।
(दोहा) कालसर्प के कवल तैं, छोरत जिनकौ नाम।
बँधे ते ब्राह्मण वचन बस, माया सर्पहि राम।।56।।
स्वागता छंद
पन्नगारि तबहीं तहँ आये। व्याल लाल सब मारि भगाये।
लंक माँझ तबहीं गइ सता। सुभ्र देह अवलोकि सुगीता।।57।।