लइका बूढ़ के झगरा / गुलाबचंद सिंह ‘आभास’
बम्बेमेल, देहरादून, हमहूँ तूफान रहीं
ए बाबू! सुन ऽ हो हमहूँ जवान रहीं
फुटुर फुटुर कबे ले, हाँकत तू का बाड़
ही ही ही ही कबे ले, झाँकत तू का बाड़
नया सौखीन हउवऽ, बुझीला मजे में
केतना जियान तुहुँ कइले बाड़ऽ सजे में
ताल देहल जाँघे जे, करत उतान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रहीं
चिरई भर माँस पर, बात ना बनावल हऽ
पव पव भर घीव पी के, देह ई बनावल हऽ
दूधो में पानी ना तनिको मेरावल हऽ
नव नव लड़वइया के जोर ई करावल हऽ
लाठी उठाई त, धाँगत सिवान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रही
सीकिया पहलवान हवऽ, देहियों त हिलत बा
का बोलब, बोले में साँसों त फूलत बा
बहतर निकाल त हाड़ो गिना जाई
एको थाप लागी त देहियाँ गोंजा जाई
दूध पी के चर चर सेर माँजत बथान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रहीं
देखतानी लइकी अस, बीचे माँग फाटल बा
अइसन बुझाला जइसे, कवनो रोड छाँटल बा
हमार देखऽ कुरता हऽ, कि तोहरा अस कुरसी हऽ ?
धोकरी में किसमिस कि तोहरा अससुरती हऽ ?
नया रही नवे न, दस त पुरान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रहीं
बार मत देखऽ ई, घामे न पाकल हऽ
जइसे चाहऽ ओइसे सब सइला के हाँकल हऽ
बुझीला तहरा के, कइसन ई ठाट बाट
ऊपरे से फीट, फाट नीचे मोकामा घाट
तेहरा अस नाही हम, जिनगी जियान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रहीं
धरऽतानी हाथ, आवऽ, हमसे छुड़ालऽत ?
नही त ठाढ़ बानी, आवऽ, घसकालऽत ?
जहाँ चाहऽ जइसे तू, चलऽ अजमालऽत ?
घरे ददो से पुछिहऽ पटकले, सिवान रहीं
ए बाबू! सुनऽ हो, हमहूँ जवान रहीं