भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लकड़हारा / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

"भरी दोपहरी में सोए हो!
लकड़हारे?"
"जी, महाराज"
"कुछ लकड़ी काटो"
"सो तो काट चुका सवेरे,
दे भी आया मंडी में"
"कितने की?"
'बारह आने!"
'कुल में! काटो कुछ और अभी
पहले से दुगनी तिगुनी, प्रतिदिन"
"तब क्या होगा, महाराज?"
"मंदबुद्धि हो क्या, भाई! पैसे से
गुदड़ी भर जाएगी"
"तब क्या होगा, महाराज?"
"तो करना न होगा काम,
करना आराम! सोना लम्बी तान!"
"मैं अभी पड़ा हो करता था, वह क्या था,
महाराज?"