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लकड़हारे / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
अब नहीं दिखते लकड़हारे।
बहुत
बहुत साल पहले लकड़हारे
सिर पर उठाये
सलीके से बन्धा लकड़ी का गट्ठर
घूमते थे शहर बाज़ारों में।
बहुत पतले और कृशकाय
होते थे लकड़हारे
ऊँचे से ऊँचे वृक्ष पर
चढ़ जाते थे लँगूर की तरह
तोड़ते हुए सूखी लकड़ियाँ।
अब लकड़हारे हैं
लोक कथा नायक की तरह
अतीत की बात...
एक था लकड़हारा
जंगल में लकड़ियाँ चुनता
शहर में बेचता
गुज़ारा करता
मिली उसे एक सोने की कुल्हाड़ी।
अब जंगलों के जंगल कट गये आरे से
जब कि लकड़ी कोई नहीं जलाता
जबकि लगा है प्रतिबन्ध
कोई नहीं काटेगा लकड़ी
ऐसे में क्या कर रहे होंगे लकड़हारे
कहाँ गई उनकी छोटी कुल्हाड़ी
जो काटती थी सूखी लकड़ी
सोने की कुल्हाड़ी के इँतजार में
क्या कर रही होंगी उनकी संतानें।