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लक्ष्मण / सुमित्रानंदन पंत

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विश्व श्याम जीवन के जलधर
राम प्रणम्य, राम हैं ईश्वर!
लक्ष्मण निर्मल स्नेह सरोवर
करुणा सागर से भी सुंदर!

सीता के चेतना जागरण
राम हिमालय से चिर पावन,
मेरे मन के मानव लक्ष्मण
ईश्वरत्व भी जिन्हें समर्पण!

धीर वीर अपने पर निर्भर
झुका अहं धनु धर सेवा शर
कब से भू पर रहे वे विचर
लक्ष्मण सच्चे भ्राता, सहचर!

युग युग से चिर असि व्रत चारी,
जग जीवन विघ्नों के हारी
जन सेवा उनकी प्रिय नारी
वह उर्मिला, हृदय को प्यारी!

रुधिर वेग से कंपित थर थर
पकड़ ऊर्मिला का पल्लव कर
बोले, ‘प्रिये, बिदा दो हँसकर
संग राम के जाता अनुचर।’

चौदह बरस रहे वह बाहर
बिछुड़े नहीं प्रिया से क्षण भर
सजग ऊर्मिला थी उर भीतर
मानस की सी ऊर्मि निरंतर!

स्नेह ऊर्मिला का चिर चिश्छल
नहीं जानता विरह मिलन पल
वह बह बह अंतर में अविरल
बनता रहता सेवा मंगल!

वह सेवा कर्तव्य नहीं है
वह भीतर से स्वतः बही है
हार्दिकता की सरित रही है
जिससे निश्चित हरित मही है!

सहज सलज्ज सुशील स्नेहमय,
जन जन के साथी, चिर सहृदय,
मुक्त हृदय विनम्र अति निर्भय
जन्म जन्म का हो ज्यों परिचय,

जाते वे सन्मुख प्रसन्न मन
भू पर नत आनंद के गगन—
बरस गया जिसका ममत्व घन
गौर चाँदनी सा चेतन तन!

ऐसे भू के मानव लक्ष्मण
कभी गा सकूँ उनका जीवन,
छू जिनके सेवा निरत चरण
बिछ जाते पथ शूल फूल बन!

राम पतित पावन, दुख मोचन
लक्ष्मण भव सुख दुख में शोभन!
वे सर्वज्ञ, सर्वगत, गोपन
ज्ञान मुक्त ये पद नत लोचन!