लक्ष्मी तू न आयी / दिनेश श्रीवास्तव
मैं हर दीवाली को
अपना टूटा फूटा घर
साफ़ करता हूँ,
अपने फटे कम्बल को
पखार कर आसन बनाता हूँ
मेरे बच्चे जंगल से लाये
फूलों की माला बनाते हैं.
और हम रात भर
प्रतीक्षा करते हैं
लक्ष्मी तेरे आने की.
मुझसे पहले की
हजारों पीढ़ियों ने भी
यही किया था
पर लक्ष्मी तू
हमारे घर न आयी.
आती भी कैसे?
मेरे घर में तो श्रम का
दिया जलता है
और तेरा वाहन
अँधेरे का प्रेमी है.
वह तो वहीं जाएगा
जहाँ अँधेरा घिरा हो
चाहे वह काले धन का ही हो.
और लक्ष्मी !
सुना है
तेरी सरस्वती से
पटरी नहीं बैठती.
पर मैं तो दिन भर
फावड़ा चलाता हूँ.
मेरी बीबी दिन भर
गारा ढोती है,
बड़ा लड़का रिक्शा खींचता है
और छोटा मिट्टी में
पड़ा पड़ा अपनी
नाक चाटता रहता है.
काला अक्षर हमारे लिए
बाँझ भैंस सा है
और किसी भी प्रकार की कला से
हमारा दूर दूर का रिश्ता नहीं.
लक्ष्मी !
अगर तू मेरे घर
आये तो तुझ पर
सरस्वती की छाया तक
नहीं पड़ेगी.
पर मैं जानता हूँ कि
तू मेरे घर नहीं आएगी.
तू न केवल सरस्वती से बल्कि
श्रम-स्वेदुओं से भी चिढ़ती है!
(प्रकाशित, विश्वामित्र पूजा दीपावली विशेषांक, कलकत्ता, १९७९)