भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लख़्तगी के ताने बाने खुल रहे हैं / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लख्तगी के ताने बाने खुल रहे हैं।
जख्म के टांके पुराने खुल रहे हैं।

बेतहाशा ग़म गये बाँटे हैं कुछ को,
कुछ की क़िस्मत के ख़जा़ने खुल रहे हैं।

वक़्त था सर खोलने की थी न हिम्मत,
अब हसीनाओं के शाने खुल रहे हैं।

पहले बिकता था सुखन नजरें बचाकर,
अब सुखन के कारखाने खुल रहे हैं।

अब न जिन्दा रह सकेगा भाईचारा,
दुश्मनी के सौ बहाने खुल रहे हैं।

फिर से क्या तारीख दुहरायेगी ख़ुद को,
जुल्म के शातिर मुहाने खुल रहे हैं।

अब लगाना आग कुछ आसान होगा,
कुछ नये बारूद-खाने खुल रहे हैं।

आ सका फिर भी न काबू में जरायम,
कू-ब-कू ‘विश्वास’ थाने खुल रहे हैं।