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लगता है कुछ दिनों से / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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लगता है कुछ दिनों से मुझे मर गया हूँ मैं!
अपने वुजूद से तो नहीं डर गया हूँ मैं!

आता रहा जहाँ में आम शख्स की तरह,
जब भी गया हूँ, हो-के पयम्बर गया हूँ मैं!

आँखों में रह गई न रौशनी, न तीरगी,
अहसास की सरहद को पार कर गया हूँ मैं!

जिन रास्तों पे जा-के लौटना मुहाल था,
उन रास्तों पे दोस्तो! अक्सर गया हूँ मैं!

रहना तो अकेला था, मगर जोशे जुनू में,
'सिन्दूर' माँग में किसी की भर गया हूँ मैं!