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लगा दे सोज़-ए-मोहब्बत फिर आग सीने में / मुबारक अज़ीमाबादी

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लगा दे सोज़-ए-मोहब्बत फिर आग सीने में
मज़ा फिर आने लगे दिल-जलों को जीने में

ब-ख़ैर गुज़रें ये दो दिन बहार के या रब
के रोक-टोक बहुत हो रही है पीने में

खटक रही है कोई शय निकाल दे कोई
तड़प रहा है दिल-ए-बे-क़रार सीने में

चमक रही है ये बिजली गिरेगी तौबा पर
झलक रही है मै-ए-लाल-फ़ाम मीने में

ये ख़ास वक़्तों के कुछ नाला-हा-ए-मौज़ूँ हैं
हमारे शेर ‘मुबारक’ नहीं सफ़ीने में