भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लगी तोड़ने ख़ामोशी को बंजारिन वाचाल हवा / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
लगी तोड़ने ख़ामोशी को
बंजारिन वाचाल हवा की
नर्म-नर्म पगचापें
सूनी पगडण्डी पर पड़ते
मुखर धूप के पाँव
धुन्ध चुप्पियों की फटती है
लगे दीखने गाँव
कुहरे ढकी नदी पर दिखती —
हिलती-कँपती छाँव
मौसम के नाविक ने खोली
बँधी हुई फिर नाव
लहरों पर से लगी चीरने
अन्धियारे की परतों को अब
चप्पू की ये थापें
बछड़ों से बिछुड़ी गायों-सी
रम्भा रही है भोर
डाली-डाली पर उग आया
कोंपलवर्णी शोर
सारस-दल की क्रेंकारों से
गूँजे नभ के छोर
झीलों में आवर्त रच रहे
रंगों के हिलकोर
गन्ध थिरकती है पढ़-पढ़ कर
सन्नाटे की रेती पर ये —
पड़ी गीत की छापें