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लग गेलो लोकतंत्र के मेला / सिलसिला / रणजीत दुधु

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लग गेलो लोकतंत्र के मेला,
देखऽ पुंजीपतियन के नंगा खेला
करोडीमल हे सब परतियासी
गरीब के कइसे मिटतइ उदासी
खरबपति गुरू हो अरबपति चेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

लाखों में हे सरकारी खरचा
कइसे गरीब सब भरतइ परचा
टिकट लेवे ले हे ठेलमठेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

लोकतंत्र के न´ उ जाने मरम
परिवारे चलवे में जे हे बेदम
खेते में फोड़े दिन भर ढेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

लाचार गरीब के हे एके दुख
कइसउँ मिट जाय पेट के भुख
जीवन में हे हरदम झमेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

हेलीकोपटर देखे दौड़े भीड़
दूरवाला चीज आ गेल भीर
मजूर दौड़े छोड़ छोड़ ठेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

कतनो विकास कइलक हन विज्ञान
चल रहलो जात धरम के दोकान
चुनाव में न´ को´ हे अकेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

अनपढ़ के कहाँ हे ई ज्ञान
केकरो कहल जा हके मतदान
वोट देतइ जे खिलवत केला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

जहिया तक जनता रहतइ बिकते
तहिया तक नेता रहतइ ठगते
जनता शिक्षित तब लोकतंत्र वेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

खोय पड़तय अब दिल पर चोट के
तभिये समझतइ कीमत वोट के
न´ कहतइ की हे अइला गेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

सभी परतियासी रहतइ खोटा
तब दबा देबइ बटम नोटा
न´ रहतइ तब नेता के रेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।

अब न´ खजाना लूटे देबइ
मतदान करके अपन हक लेवइ
चुनवइ परतियासी अलबेला
लग गेलो लोकतंत्र के मेला।