लच्छन एक कुलच्छन चारि / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
लच्छन एक कुलच्छन चारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
नीचाँ सँ ऊपर धरि सगरो
गत्र गत्रमे लागल घून,
दुश्शासनमे दुर्योधन लग
फेल भेल सबटा कानून।
दुर्मतिया मति रहल बिगाड़ि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
माघ-फागुनक ठार जेहन छल
तेहने पतल जेठ-बैशाख,
वर्षा अबिते उबडुब-उबडुब
डूबि रहल अछि लाखक लाख,
सड़क बान्हमे पड़ल दड़ारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
देशक नावक कर्णधार सब
केँ छनि केवल बसिला धार
लोकतन्त्र लोकल अछि उपरे
जनता ठोकओ अपन कपार,
पाप धर्मकेँ रहल पछाड़ि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
चण्ड-मुण्डकेर कथा सुनल अछि?
से फेरो जन्मल अछि आइ,
देव-शक्ति संगठित न जा
ता’ नहि अवतरती दुर्गा माइ,
एकरा कोना सकब संहारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
कहियो कहबी छल जे-
उनटे-जोर जोरसँ बाजय चोर,
आ प्रत्यक्षे देखि रहल छी
चोरा सब मिलि करय सङोर,
उनटे तै पर रहल दहाड़ि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
चारू चक्का पंचर हो तँ
काबिल ड्राइवर की करताह,
पेट्रोलक टंकी फूटल हो
तँ पेट्रोल कतऽ भरताह,
तदपि सीट लै बजरय मारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
जे वियाह करबे नहि कयलक
से की जानय त्रिया-चरित्र
जे कूची नहि धयलक तकरासँ
बनतै सब चित्र विचित्र
दैवक लिखल सकतके टारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
जहिया पौलहुँ ई स्वतन्त्रता
तहिया भेटल खण्डित देश,
किन्तु चरित्रक संगहि सम्प्रति
खण्डित अछि पूरा परिवेश,
काटओ लोक भने बपहारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
स्वर्ण जयन्ती वर्षो बीतल
एकरो पूरल वयस पचास,
स्वार्थक आगि धधकले जाइछ
तै पर बहय पवन उनचास,
ककरो क्यौ नइ करय पुछारि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
चन्द्र छथिन शेखर पर जनिका
ताहि देवकेँ बड़ संताप
ता-ता थैया पैसि केन्द्रमे
आब करय सत्यक अपलाप,
भितरे-भीतर बहय बिहाड़ि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।
सीतारामझाक ई पाँती-
‘दय गरदनियाँ धैने टीक’
अक्षर-अक्षर सत्य बुझाइछ
‘हटय न जे से थेत्थर थीक,
मारि-गरि लेलक अवधरि, एकसर की करती भुल्ली बिलाड़ि।