लच्छू महाराज के साथ तबले पर संगत / विष्णुचन्द्र शर्मा
1.
नदी ठहर गई है
तबले पर बजती हुई ।
खोज रहा है
वापस लौटने का पथ
जंगल में शेर ।
पहाड़ पर बरसने वाले बादल
आख़िर तबले में
बज उठते हैं ।
मैं सागर में कान लगाकर पड़ा हूँ
आख़िर गति इतनी सख़्त, इतनी उच्छृंखल,
इतनी कोमल होकर,
तबले में किससे मिल रही है ?
पहाड़ों पर दौड़ती नदी की तरह
अँगुलियाँ
तबले पर धस रही हैं । धम । धमाधम ।
2.
लोग !
संगीत के तहख़ाने में उतर रहे हैं ।
लोग !
सोते हुए हँस रहे हैं ।
लोग !
सुन रहे हैं
साँस लेती हुई लहरें ।
जहाज़ को पछाड़ने के लिए साँसें
बेहाल हो रही हैं आदमी की ।
नाचते पहाड़ों से बातें करते हुए
लोग,
गहरे तलघर में सरक रहे हैं ।
3.
मुझे झकझोर दो !
बजा दो
मेरा अहं ।
टकरा दो
मेरी गति ।
तोड़ दो ज़रा आहिस्ते से
मेरी साँसों का
लड़खड़ाता वज़न ।
कँपा दो
फिर से
पूरी शांत लेटी हुई
सदी को,
लच्छू महाराज !
तबले पर ।
4.
मंच पर
लुढ़क गई है पूरी सदी ।
छटपटा रहा है राजा ।
उठने से लाचार रानी
रो रही है
ज़ार-ज़ार
मंच से
पूरी की पूरी गुज़री हुई सभ्यता
हताश होकर
ढूँढ़ रही हैं
छिपने का ठाँव ।
5.
तुम्हारा प्रेम
पाग़ल हो गया है
उठो !
तबले की गत दौड़ रही है
सितार पर
(जाग रहा है चौकीदार
रात में अकेला)
प्रेम में कोई ताल बेसुरी नहीं है ।
सब संगत है ।
तुम्हारे प्रेम की लहर में
खो गई है मेरी सत्ता
उठो !
हम पाग़ल हो गए हैं
अपने-अपने आवेश में ।
6.
पालतू हो गया है
तूफ़ान
पेड़ों के चेहरों की हँसी में
नहा रही है वर्षा
(इतना भी कोमल किया जा सकता है
वज्र का गर्जन क्या ?)
भिगो देने वाली हवाएँ
नहीं रुकेंगी लच्छू महाराज !
आहिस्ता से तूफ़ान
पूरी पीढ़ी की यातना लिए
तबले की गत से
गुज़र जाएगा ।
7.
अपनी-अपनी आवाज़ है
हर एक की
हर एक ने पार की हैं
संगीत की पूरी पेचदार
गलियाँ
अपनी आवाज़ में
एक ट्रेन
पुल से गुज़र रही है
तबले पर
एक नगर बोल रहा है
अपनी आवाज़ में ।
8.
उसके चेहरे पर
केवल नाक है
अपनी पहचान में
चमकदार
दो आँखें हैं
फूलों की क्यारियों में रंगीन
गुलाबी
रोशन
उसके चेहरे पर
संगीत की
पहचान है ।
9.
रुको!
मेरी आँखों में झाँकने पर भी
अपनी पहचान
तुम्हें नहीं मिलेगी
तबले पर चिड़िया नाचेगी ।
पहाड़ सड़क को
पत्थरों से भर देगा
सूँड़ उठा कर नाचेगा हाथी
एक पैर पर ।
तबले पर दो आँखें झाँकेंगी ।
अपनी-अपनी पहचान होगी ।
मेरी, घुड़कते बादलों की
और तुम्हारी : लपटों में नंगे नाचने की ।
10.
रख लो
अपने खाली घर में
बोलता हुआ दिल ।
तबले पर
उसके बोल
उतार दिए हैं
मैंने ।
11.
मेरी तरह
नहीं डूबते हैं पहाड़
नहीं टूटते हैं पहाड़
सूखे और प्यासे रह जाते हैं पहाड़ ।
मुझे यही लगता है
(स्वयं वे न बोले हैं, न बोलेंगे)
सागर में
वर्षा में,
मेरी तरह
तबले पर
नहीं टूटती है गत ।
नहीं चुकती है
संगीत के अलग-अलग
घरानों की धुनें ।
12.
नगाड़ा बज रहा है
तबले पर
लोग
चौराहे पर
चौकन्ने से खड़े हैं ।
अब
किधर से
युद्ध की शुरूआत होगी !
लोग
अपने-अपने घरानों के
खुले मंच पर
सुगबुगाहट
महसूस कर रहे हैं ।
रचनाकाल : (लच्छू महाराज का घर, काशी, जुलाई 1970)