लटकल देखलौं सोपरिया, पसरल नवरँगिया नै हे / अंगिका लोकगीत
संतानहीना तिरस्कृता नारी को पति घर से निकाल देता है। उससे फुलवारी में नागिन और कोयल से भेंट होती है। दोनों उससे घर से निकाले जाने का कारण पूछती हैं। वह कहती है-‘मेरी सास और ननदें मुझे बाँझिन कहती हैं। इसी कारण मेरे पति ने भी मुझे घर से निकाल दिया है।’ वहाँ से चलकर वह भगवती के मंदिर में पहुँचती है। उसकी दुःखगाथा सुनकर माता भगवती उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद देती है तथा घर लौट जाने को कहती है। ठीक समय पर उसे पुत्र होता है तथा महल सोहर से गूँज उठता है। जिस घर में पग-पग पर उसका तिरस्कार होता था, उसी घर में सभी उसका आदर-सम्मान करने लगते हैं।
गीत के प्रारंभ में नारंगी और सुपारी के फलों का वर्णन है, जो स्त्री की उस प्रारंभिक अवस्था का द्योतक है, जिस समय इस घर में उसका पदार्पण हुआ था।
लटकल देखलों सोंपरिया<ref>सुपारी; कसैली</ref>, पसरल नवरँगिया नै हे।
सेजिया पर देखलों बलमुआ, देखै में सोहाबन हे॥1॥
ओतेॅ सेॅ चलि भैली बहुआ, त फुलबरिया बीच ठाढ़ भेली हे।
फुलबरिया सेॅ निकसल नगनिया मैया, त दुख सुख पूछै हे।
बहुआ, कौने बिपतिया के मारल, फुलबरिया बीचे ठाढ़ भेली हे॥2॥
सासु मोरा कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।
जिनकर<ref>जिनका</ref> हमें रे बहुरिया<ref>दुलहिन</ref>, से घर सेॅ निकाललै हे॥3॥
ओते<ref>वहां</ref> सेॅ चलि भेली बहुआ, त बगिया बीचे ठाढ़ भेली हे।
बगिया में अमबा पर बैठल कोयलिया, कुहुकि पूछै नै हे।
बहुआ, कौने बिपतिया के मारल, बगिया बीचे ठाढ़ भेली हे॥4॥
सासु मोरी कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।
जिनकर हमें रे बहुरिया से घर से निकाललै हे॥5॥
ओतेॅ से चली भेली बहुआ, मदिरबा बीचे ठाढ़ भेली हे।
मंदिर सेॅ निकलली महरानी मैया, त दुख सुख पूछै नै हे।
बेटी, कौने दुख के मारल, मंदिरबा बीचे ठाढ़ भेली हे॥6॥
मैया, सासु मोरी कहले बँझिनियाँ, ननद मोरी बाँझिन हे।
जिनकर हमें रे बहुरिया, से घर से निकाललै हे॥7॥
बेटी, सासु ननद पिआ घर घुरि जाहो<ref>लौट जाओ</ref>, जहाँ सेॅ निकाललि हे।
वोही घर नवमें महिनमा, होरिलबा जनम लेतौ नै हे॥8॥
आहे आधी पहर राति तखनै<ref>उसी समय</ref> भेलै ललना, अँगना सोहाबन हे।
बाहर बाजै बधैया, महल सब सोहर गाबै नै हे।
बाजे लागल आनंद बधैया, कि बबुआ जनम लेलै हे॥9॥
सासु मोरी कहलनि पुतोह, ननद अब भौजी कहै हे।
जिनकर हमें रे बहुरिया, से पलँगा बैठाई छतिया लगाबै हे॥10॥