भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़कियाँ हँस रही हैं / कुमार अनुपम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़कियाँ हँस रही हैं
 
इतनी रँगीली और हल्की है उनकी हँसी
कि हँसते-हँसते
गुबारा हुई जा रही हैं लड़कियाँ
 
हँस रही हैं लड़कियाँ
लड़कियाँ हँस रही हैं
 
कि खुल-खुल पड़ते हैं बाजूबंद
पायल नदी हुई जा रही है
हार इतने लचीले और ढीले
कि शरद की रात
कि लड़कियों की बात
कि पंखों में बदल रहे हैं
सारे किवाड़
सारी खिड़कियाँ
 
लड़कियाँ हँस रही हैं
 
लड़कियाँ हँस रही हैं
इस छोर से
उस छोर तक
अँटा जा रहा है इंद्रधनुष
रोर छँटा जा रहा है
धुली जा रही है हवा
घटा चली आ रही है मचलती
तिरोहित हो रहा है
आकाश का कलुष
धरती भीज रही है उनकी हँसी में
 
उनकी हँसी में
फँसा जा रहा है समय
 
रुको
रुको चूल्हा-बर्तनो
सुई-धागो रुको
किसी प्रेमपत्र के जवाब में
उन्हें हँसने दो!