लड़कियों के खेल में गोबर शामिल होता है / विपिन चौधरी
स्कूल जाने वाली चंद सौभाग्यशाली
लड़कियां आधी छुट्टी में
स्टापू, पकड़म-पकड़ाई, रस्सी, खो-खो खेलती हैं
जानने वाले जानते है
कि लड़कियां जन्म से ही रचनात्मक होती है
वैसे 1000 के पीछे 877 में स्त्री:पुरुष अनुपात वाले प्रदेश में
इस तथ्य से इनकार करने वाले भी बहुतेरे हैं
गोबर चुगना
गांव के हद में एक मूल्यवान काम है
उसे सहेजना
एक आर्थिक निपुणता
जिसे गांव-गुहाँड की निरक्षर लड़कियों ने एक
चुस्त खेल बना कर ही दम लिया है
तपती बालू रेत में सलवार के पोंचे में उलझने से बचती
भागती हैं ये लड़कियां
लोगों की ढोर डंगरों के पीछे-पीछे
थक जाने पर देखती है
किसका तसला ऊपर तक गोबर से भरा है
काम को एक खेल में तब्दील कर अपनी
सूझ बूझ का अंगूठा लागने के
इस खेल में किसी और की दिलचस्पी हो ना हो
इसकी उन्हें परवाह नहीं है
देश के ग्रामीण विकास मंत्री को
गांवों में इस कामनुमा खेल की कोई खबर कैसे हो
यह खेल किसी देश के खेल में शमिल भी नहीं है
अपने यहाँ एक रोज़गार मंत्री
आंकड़ों में मुहँ घुसाये बिना यह नहीं बता सकता कि
देश में कितने बेरोजगार हैं
और ग्रामीण मामलों का मंत्री
तो इतना लाजवाब कर देता है जब वह
अपना ताज़ा बयान लेकर हाज़िर होता है कि
“सब ग्रामीण लड़कियां अब स्वाबलंबी हो गयी हैं”