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लड़कियो ! हंसो / सुनील श्रीवास्तव

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(1)

अभी तो देखने थे सपने
आकाश की छाती पर रोपकर लाठी
बढ़ाने थे कदम आगे
सितारों के बीच ठहरकर कहीं
सुस्ताना था
और फिर देखनी थी अपनी ज़मीन

तुमने क्यों रोका रास्ता
दौड़ते-दौड़ते गिर पड़ा हूँ औन्धे मुँह
तुम्हारे लोथड़े से टकराए थे मेरे पाँव
पोंछता हूँ तुम्हारे लहू में सराबोर अपनी कमीज़
और तुम मेरा कॉलर पकड़कर पूछती हो —
कल चमकदार चेहरेवालों ने
मेरा क़त्ल किया था जब
मेरी रूह की तलाश रखने वाले तुम
कहाँ थे ?
कहाँ, कहाँ,कहाँ थे ?

(2)

मिसिराइन चाची गरियाती रह जातीं
और हम दौड़ते पार कर जाते अँगना

झाँक आते कनिया का घर
आकर संगी को बताते —
जीतना बो भउजी हैं बड़ी सुन्नर
परी इन्नरासन की
संगी ताल ठोक कर कहता —
जीतना भइयवा कम है का
एके सांस छक जाता भर लबनी ताड़ी
लेता नहीं डकार भी

हम स्कूल जाते थे
और अंग्रेज़ी को छोड़ बूझने लगे थे सब
कित कित खेलती बहनों से भी
नहीं पूछ पाते थे
कनिया का हालचाल

(3)

बेगमपुर के कहारों के कन्धे दुखने लगे थे अचानक
नाइनॉ की उँगलियाँ टेढ़ी हो गई थीं
सोने के सिंहोरों की चमक गायब
और मैंने रात में ही फ़ोन लगाया
अपनी बहन को
पूछा उसका कुशल

(4)

लड़कियो, सुनो
हंसो
हंसती रहो इसी तरह
तुम्हारे हंसने से होगी दुनिया रौशन

तनी मुट्ठियों का जवाब —
तुम्हारी हंसी
पूर्वजाओं के आंसुओं का प्रतिकार —
तुम्हारी हंसी
हम कायरों की कविता का मखौल —
तुम्हारी हंसी।