उन दिनों हमने शायद ही यह शब्द कहा हो -- प्यार ! हम कुछ भी कहते टिफ़िन, हवा, दवाई, शहर, पढ़ाई ..सुनाई देता प्यार। प्यार से हम नफ़रत करते, चिढ़ते और एक-दूजे को ख़त्म करते ।
प्यार से हम इतना दुख देते कि मुँह मोड़ लेती सिसकी लेती हवा । हमें वह प्यार सुनाई देता -- हवा का सिसकी लेना।
एक अभिशप्त भविष्य का हम चित्र रचते प्यार में और उसे ज़हर बुझे लिफाफों में एक दूसरे को भेंट करते। एक ज़हरीला संगीत जो हवा में गूँजता रहता, हम उसको सबसे पहले सुन लेते -- पर हमें वह प्यार सुनाई देता ।
हम जुदाई की मेहंदी रचाते न आने वाली रातों के सपनों में, एक जली हुई सड़क हमारे सामने होती तो कहते थोड़ी दूर चल लेते हैं साथ ।
हमें अलग-अलग समयों में जन्म लेना था कहने से पेश्तर एक बार कह लेना था प्यार ।
गुलाब के फूलों का ज़िक्र और लड़की आने से छूट गए कैसे नामालूम इस अफ़साने में ।