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लड़की और चंद अधबुने ख़्वाब / विमलेश शर्मा
Kavita Kosh से
कोई हँसी
इतनी अभिशप्त होती है कि
खनकते ही
बिखर कर टूट जाती है।
ऐसे में ग़र वहाँ
चुप का ताला लगा रहे
तो कुछ नवजात बचा रहेगा शायद!
मन रेशम यही बुदबुदाया था!
लड़की की बात सुन
उसकी चौंक ने सिहरती आवाज़ में कहा
हाँ! बची तो रहेगी
एक अजन्मी खनक
एक उमगती खनक
काँसे के थाल से इतर
आंगन में बिखरकर
खिलने को तरसती
ख्वाबों के इन्द्रधनु-सी
एक कच्ची खनक!
और फ़िर तब से
रूआँसी चौंक हलक में हिचकी बाँध
चुप की दहलीज़ पर ठहर गई
सदियों तलक!
सुना है!
उस चौंक और हँसी को आज़ाद करने की कोशिशें
जारी है जोरों से
पर नतीजा है कि
रह जाता है सिफ़र
बार-बार
हर बार!