लड़की की माँ / शैलजा सक्सेना
सो नहीं पाई है माँ ज़माने से!
बेटी के लिये,
एक सही पुरुष की तलाश में,
भटकती रही है सदियों तक
और खोजबीन कर भी
ला नहीं पाई एक ऐसा पुरुष जो
दे सके उसकी बेटी को
एक मज़बूत घर!
ऐसा घर, जिसकी दीवारों पर
वो अपनी प्रतिभा से
खुशियों के बूटे
बना सके!
जो ना लाये बादलों का हिंडोला
पर ज़िंदगी को न झुलाये हिंडोले सा..
जो गीत गाती लाडॊ के सुर सुन
मुस्कुरा सके,
कहे “वाह, बहुत मिठास है तुम्हारी आवाज़ में”
और फिर बनाये रखे उस मिठास को
अपनी मिठास से।
पर हर सदी में मात खाती रही माँ!
कभी ऊँचे बाज़ार भाव,
कभी सही पुरुष का अभाव,
कभी अपने सामान में खोट
बताती आँखों में तोल-मोल!!
चिन्ताग्रस्त ही रही है लड़की की माँ सदियों से..
कि अचानक उस दिन
घनघनाते फोन पर सुना उसने
गुनगुनाती सी बेटी को…
“माँ,
खोज लिया है मैंने अपना वर!
हम मिल कर बनायेंगे,
वही, तुम्हारे सपनों वाला घर!
जहाँ खर्चों पर खर्च होंगे हम दोनों
और सँभालने को भी सँभलेगे हम दोनों।
जहाँ रसोई और टी.वी. रिमोट पर रहेगी बराबर की हिस्सेदारी।
हमारे हाथ गुस्से में नहीं,
केवल सपने पकड़ने को उठेंगे
और आँसू निकलेंगे केवल प्याज़ काटने पर!
मैं बनाऊँगी अपनी खुशियों के फूल घर की दीवारों पर!
तुम्हारी पलकों में थके इंतज़ार को
अब जगना नहीं पड़ेगा, सुबह की ओस तक…
माँ, अब तुम सो सकती हो चैन से!”