भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लड़की भूल जाती है / रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़की काग़ज़ रख कर भूल जाती है
जैसे शाम दिन को भूल जाती है

उसके हाथों का काग़ज़ धूप का टुकड़ा है
लड़की धरती पर धूप का टुकड़ा भूल जाती है

मेरी दुनियावी समझाइशों पे हँस कर
लड़की अपना ग़म भूल जाती है

डाँटता हूँ कि सीख जाए दुनिया के फ़साने
लेकिन अपनी आँखों में रख कर सब भूल जाती है।