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लड़ता हुआ आदमी / सुकेश साहनी
Kavita Kosh से
वह लड़ा है, उनके लिए
जिन्हें पैदा होते ही मार दिया गया
वह लड़ा है, उनके लिए
जिन्होंने लड़ना सीखा ही नहीं
वह लड़ रहा है, उनके लिए,
जो चाहकर भी न लड़ सके
ओ तमाशबीनो!
वह लड़ रहा है
तुम्हारे लिए भी,
लड़ता हुआ आदमी
लड़ता है हर किस्म की बीमारियों से
उसे तुम्हारी दवाओं की जरूरत नहीं होती
लड़ता हुआ आदमी
रचता है ऋचाएं
उसे तुम्हारे ‘जाप’ की जरूरत नहीं होती
लड़ते हुए आदमी से
निकलती हैं नदियाँ
उसे गंगाजल की जरूरत नहीं होती
लड़ता हुआ आदमी
सिरजता है असंख्य सूरज
उसे मिट्टी के दीये की जरूरत नहीं होती
लड़ता हुआ आदमी
लड़ सकता है बिना जिस्म के भी
उसे नपुसंक फौज की जरूरत नहीं होती