लड़ाइयाँ-2 / प्रेमचन्द गांधी
जितने देश हैं
उतनी ही सेनाएँ हैं दुनिया में
हर देश का सैनिक देशभक्त सैनिक
एक देशभक्त सैनिक
दूसरे देशभक्त सैनिक का दुश्मन
होता है क्यों
यह नहीं मालूम
मैं अपनी माँ से प्रेम करता हूँ तो
दूसरे की माँ दुश्मन क्यों है
ये तमाम सेनाएँ देशभक्तों की हैं
या कि दुश्मनों की
इस धरती पर लगता है
सारी फौजें हैं
सिर्फ़ दुश्मनों की
पड़ोसी दुश्मन देश हो या
देश के भीतर पल रहे दुश्मन हों
सभी से निपटने के लिए चाहिए सेना
जिस देश से न रहा कभी वास्ता
वहाँ भी चली जाएँगी फौजें
और किसी के स्वार्थ में मारे जाएँगे
दोनों तरफ़ के सैनिक
दूर देश में लड़ने जाता फौजी
सोचता ही रह जाता है
हम क्यों जा रहे हैं वहाँ
उन्होंने तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा
लेकिन आदेश तो आदेश है और
फौजी आदेश का तो कहना ही क्या
देशभक्ति के सारे गीत
दुश्मन को ललकारने के प्रयाण-गीत
वतन पर क़ुरबान होने के गीत
अपने ह्रदय के अंतस्थल से जानता है
एक सच्चा फौजी कि
कुल जमा इन्सान को इन्सान से
लड़ा देने के गीत हैं
जिन्हें बेचने हैं हथियार
करना है कहीं पर कब्ज़ा
वे ही तय करते हैं देशभक्ति के मानक
वे किसी भी नाम पर
जगा सकते हैं देशभक्ति की भावना
वे छेड़ सकते हैं गृहयुद्ध
वे मजबूर कर सकते हैं किसी भी देश को
अपने दुश्मन से लड़ने के लिए
लोग जहाँ भी लड़ेंगे
वहीं हथियार बिकेंगे
लोग लड़ाइयों में मरेंगे तो
फूलों का कारोबार बढ़ेगा और
उसी तादाद में ताबूतों का
सौदागरों का क्या है
उन्हें तो बस माल की बिक्री से मतलब है
लड़ाई चलती रहनी चाहिए
लड़ते हुए लोग
सौदागरों की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं
और लड़ाइयों का क्या है
वे कभी बुनियादी सवालों पर नहीं होतीं
इसीलिए इतिहास में
कोई लड़ाई निर्णायक नहीं होती
निर्णायक तो मौत होती है
जो हर लड़ाई के बाद
अट्टहास करती नाचती है
ज़िन्दगी का नाच तो जंगलों के साथ चला गया
अब तो महज शोर है हथियारों का
जिसे ही संगीत कहा जा रहा है
और लोग हैं कि नाचे जा रहे हैं
दुनिया के सारे फूल
सैनिकों-सिपाहियों की टोपियों के लिए हैं
बच जाएँ तो ताबूतों के लिए
प्रेम के लिए तो एक फूल ही काफ़ी है ।