लड़ाइयाँ-3 / प्रेमचन्द गांधी
लड़ना इन्सान की फितरत है
आदिम काल से ही लड़ता आया है वह
पेट भरने और जान बचाने से
शुरू हुई थी इन्सान की लड़ाई
जिसमें वक़्त के साथ
ना जाने कितनी इच्छाएँ जुड़तीं चली गईं
और इन्सान हर चीज़ के लिए लड़ता रहा
हर लड़ाई में हथियार चाहिए
इसलिए हर तरह के हथियार बनाए गए
मनुष्य की समूची प्रतिभा जैसे
हथियार खोजने में ही खर्च हो गई
जब हथियार नाकाफ़ी पड़ गए
विचारों की लड़ाई शुरु हुई
अपने ही विचार को महान सिद्ध करने की लड़ाई
जो विचार उपजे थे
लड़ाई के खिलाफ़ शान्ति के लिए
उन्हें भी ज़रूरत महसूस हुई कि
शान्ति के लिए भी होनी चाहिए सेना
तभी दबाया जा सकता है
अशान्ति फैलाने वाले विचारों को
और बन गई शान्ति सेनाएँ
लड़ाई के सौदागरों ने कहा और
दार्शनिक जुट गए
सिद्ध कर दिया गया कि
सेनाएँ सिर्फ़ शान्ति के लिए ही होती हैं
मैं चुपचाप क़िताब पढ़ते हुए
कविता लिखने का समय चाहता हूँ
एक स्त्री परिवार के साथ
आराम से रहना चाहती है
एक प्रेमी युगल सुकून की तलाश में है
इस सबके लिए शान्ति सेना चाहिए
कितनी अजीब बात है ना
धरती की सारी हरियाली
सेना की वर्दियों में गुम हो गई है
और पृथ्वी का नीला-आसमानी-ख़ाकी सौंदर्य
पुलिस के पास जमा है
कोई बताए
मैं उस पृथ्वी का क्या करूँगा
जिसका हरा, नीला, आसमानी और ख़ाकी रंग
हथियारों के साये में जमा कर दिया गया है
बचा ही क्या है अब पृथ्वी पर
रंगों के रूप में
एक धूसर बियाबान के सिवा
इसलिए अब मेरी लड़ाई उन रंगों के लिए है
अब मुझे भूख, प्यास और प्राणों से कहीं ज्यादा
धरती के असली रंगों की ज़रूरत है ।