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लड़ाई अब हमारी ठन रही है / ज्ञान प्रकाश विवेक
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लड़ाई अब हमारी ठन रही है
कि अब दिल्ली शिकागो बन रही है
तुम्हारी ऐशगाहों से गलाज़त
बड़ी बेशर्म होकर छन रही है
ग़रीबों की खुशी भी दरहकीकत-
नगर के सेठ की उतरन रही है
ये मेरी देह को क्या हो रहा है
किसी तलवार जैसी बन रही है
गज़ब किरदार है उस झोपड़ी का
जो आँधी के मुकाबिल तन रही है
लहू से चित्रकारी कर रहे हैं
ये बस्ती खूबसूरत बन रही है