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लता-1 / कीर्ति चौधरी
Kavita Kosh से
बड़े-बड़े गुच्छों वाली
सुर्ख़ फूलों की लतर :
जिसके लिए कभी ज़िद थी —
’यह फूले तो मेरे ही घर !’
अब कहीं भी दिखती है
किसी के द्वार-वन-उपवन,
तो भला लगता है ।
धीरे-धीरे
जाने क्यों भूलती ही जाती हूँ मैं !
ख़ुद को, और अपनापन !
बस, भूलती नहीं है तो
बड़े-बड़े गुच्छों वाली
सुर्ख़ फूलों की लतर :
जिसके लिए कभी ज़िद थी —
’यह फूले तो मेरे ही घर !’