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लत्ते बढ़िया ओढ़ पहर कै देखी एक लुगाई / मेहर सिंह

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आधी रात शिखर तै ढलगी सुपना दिया दिखाई
लत्ते बढ़िया ओढ़ पहर कै देखी एक लुगाई।टेक

रिम झिम रिमझिम होरी थी गहणा पहर री एक धड़ी
ऊंची एडी बूट बिलायती बांधरी हाथ घड़ी
काली चोटी ईंच ब्यालीस नागनी की ढाल पड़ी
जोबन की मस्ती म्हं जलती जैसे छूटै फूलझड़ी
हाथ पकड़ कै पास बैठगी हंस हंस कै बतलाई।

मनैं बुझी ना न्यूं बोली मनैं नर की चाहना सै
जोड़ी का भरतार मिल्या ना मेल मिलाना सै
मेरा बालम मनै ले ज्यागा जड़ै पानी दाना सै
आम सरोली पके पकाए भाग म्हं खाना सै
गात मुलायम मलमल कैसा पतली नरम कलाई।

आज मनैं तूं फेटया बनड़ा जिसा मैं चाहूं थी
तूं मेरा बालम मैं तेरी गोरी तनै मनाऊं थी
सुरखी बिंदी पोडर लाकै रूप बनाऊं थी
सारा हरियाणा टोहती फिरती तनैं पांऊ थी
मेहरसिंह कहै और पसन्द ना इसी चकोरी आई।