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लन्दन डायरी-3 / नीलाभ
Kavita Kosh से
इसी तरह शुरू होता है दिन
इसी तरह ख़त्म होता है
उठें हुए बाज़ुओं की कतार
थकती है
विरोध में उठे हुए सिर
झुकते हैं
झुकते हैं लहराते हुए झण्डे
ठहरे पानी में
सड़ते हैं दिनों के झरे हुए पत्ते
अँधेरे में खामोशी से
सुलगती हैं हमारी रातें
नींद के निरापद आतंक में
शहर चीनी के डलों की तरह घुलते हैं
सड़कें आपस में उलझती हैं
सिवैयों की तरह और इमारतें
बर्फ़ी के टुकड़ों की तरह
गड्ड-मड्ड होती हैं
नींद के निरापद आतंक में