भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लपक रहे हैं वराह / प्रभात कुमार सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे कविगण !
यह समय शान्तिनिष्ठ होने का नहीं है
जबकि उन्मत्त वराह के दल
शान्त लोक-कानन की ओर लपक रहे हैं
 
तुम्हारे तूर्य का कंठ फंस गया है
कौन मानेगा तुम्हें समय का सूर्य ?
बैरियों की पहचान कराते तुम्हारे शब्द
जो कभी पिनाक की धमक कहलाते थे
वे निढाल पड़े हैं पाटल की क्यारी में
 
वराह की नज़र तुम्हारे कन्धे पर है
वे पहले तोड़ देना चाहते हैं तुम्हारे कबन्ध
जिससे कि तुम ढो नहीं सको शब्दों के तुणीर
आसान हो जायगा तब तुम्हारी छातियों को तोड़ना
 
कभी तुम्हारे शब्दों के टंकार से
हो जाते थे निनादित चहुंदिश
अब भी बचे हुए हैं वे बिखरे हुए शब्द
वराहों के झुण्ड अपने दन्त प्रहार से
करना चाहते हैं उन्हें बेजान
 
जल्दी करो कविगण !
उन शब्दों को एकत्रित करो
शब्दों को जमा होते देख कांपने लगेंगे वराहों के दल
उनके दांतों की जड़ कमजोर पड़ने लगेंगी
लोकनिधि चाहती है कि तुम्हारे
शान्तिनिष्ठ होने का गुरूर जल्द टूटे
 
तेजी से फांदता हुआ वराहों का उन्मत्त-दल
शान्त लोक-कानन की ओर लपक रहा है ।