लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-तमन्ना चाहे / 'मुज़फ्फ़र' वारसी
लब-ए-ख़ामोश से इज़हार-ए-तमन्ना चाहे
बात करने को भी तस्वीर का लहजा चाहे
तू चले साथ तो आहट भी न आये अपनी
दरमियाँ हम भी न हो यूँ तुझे तन्हा चाहे
ज़ाहीरी आँखों से क्या देख सकेगा कोई
अपने बातों पे भी हम फ़ाश होना चाहे
जिस्म-पोशी को मिले चादर-ए-अफ़्लाक हमें
सर छुपाने के लिये वुस'अतु-ए-सेहरा चाहे
ख़्वाब में रोये तो एहसास हो सैराबी का
रेत पर सोयें मगर आँख में दरिया चाहे
भेंट चढ़ जाऊँ न मैं अपने ही ख़ैर-ओ-शर की
ख़ून-ए-दिल ज़ब्त करे ज़ख़्म तमाशा चाहे
ज़िन्दगी आँख से ओझल हो मगर ख़त्म न हो
एक जहाँ और पस-ए-पर्दा-ए-दुनिया चाहे
आज का दिन तो चलो कट ही गया जैसे भी कटा
अब ख़ुदा-बंद से ख़ैरियत-ए-फ़र्दा चाहे
ऐसे तैराक भी देखे हैं 'मुज़फ़्फ़र' हमने
ग़र्क़ होने के लिये भी जो सहरा चाहे