भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लमहे कुछ अपनी हथेली से फिसल जाते हैं / भवेश दिलशाद
Kavita Kosh से
लमहे कुछ अपनी हथेली से फिसल जाते हैं
और कई दिल इसी फिसलन से बहल जाते हैं
कौन सी आग में जलते हैं बताएं क्या हम
जबकि जलना है कोई आग हो जल जाते हैं
झील नीली है गगन नीला ये आँखें नीली
ऐसे शीशों में तमाम आब संभल जाते हैं
रेत पर बैठ के लहरों को गिना मत कीजै
हौसले टूटते हैं रेत में ढल जाते हैं
चाँद मुल्ज़िम है तो शायर है वक़ीले-सफ़ाई
वो दलीलें हैं कि सब दाग़ निकल जाते हैं