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लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में / अब्दुल अहद 'साज़'
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लम्हा-ए-तख़्लीक़ बख़्शा उस ने मुझ को भीक में
मैं ने लौटाया उसे इक नज़्म की तकनीक में
बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
फ़ैसले महफ़ूज़ हैं और फ़ासले हैं बरक़रार
गर्द उड़ती है यक़ीं की वादी-ए-तश्कीक में
सी के फैला दूँ बिसात-ए-फ़न पे मैं दामान-ए-चाक
डोर तो गुज़रे नज़र की सोज़न-ए-बारीक में
मैं ज़ियारत-गाह-ए-आगाही से लौट आया हूँ दोस्त
फूल लाया हूँ अलम के हदिया-ए-तबरीक में
बोल मेरे सुर को छूते छूते रह जाते हैं 'साज़'
आह ये कैसी कसर है दर्द की तहरीक में