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लम्हा – लम्हा रात / इंदिरा शर्मा

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लम्हा – लम्हा जब जाग रही हो रात
तुम्हारे साथ ,
तन्हाई भी चल देती है ,
पकड़ तुम्हारा हाथ |
कितनी उन्मुक्त उड़ान उड़ते हो तुम
अपने अतीत के साथ
बन के वीतराग |
देखते रहते हो जागती आँखों से
कोई स्वप्न पुराना
भूली –बिसरी यादों के साथ |
उस भीगी सी ओस भरी अँधेरी रात और तुम
कितना मायावी , कितना मायावी हो उठता है संसार
अकेले बिस्तर पर लेते हुए भूले बिसरे ख़्वाबों के साथ |
रात का सूनापन और फ़िजाएँ करती नहीं बात
केवल जागता रहता है तुम्हारे साथ
ये तारों भरा आकाश , ख़ामोशी के साथ |
ओह !
कितनी उदास , अकेली
तुम्हारे बिना आज
ये हिज्र की रात |