भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लरज गई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

166
लरज गई
वो कमल -पाँखुरी
कुछ न बोली ।
167
खिले कमल !
या हँसा सरोवर
देख भोर को ।
168
रखूँ बन्द ही
ये नयन पाँखुरी
जाओगे कैसे !
169
मन का भौंरा
बन्द युगों –युगों से
क़ैद ही चाहे।
170
आपकी दुआएँ
बरसाती अमृत
जिसको चाहें ।
171
मधुमालती
रात भर गमकी
भोर में सोई।
[सूर्यास्त होने के बाद मधुमालती अपनी खुशबू बिखेरने लगती है। भोर होने तक पूरा परिवेश खुशबू से सराबोर रहता है। सुबह होते ही उसकी खुशबू गायब हो जाती है।]
172
नीम का बौर
भीनी भीनी खुशबू ।
हँसे ;बिखेरे।
173
बेला का नशा ।
पीकरके हवाएँ ।
हुईं बावरी ।
174
भाव पी गए
मधुर मन के वे
जोंक बनके ।
175
पीकर मर्म
फिर भी रहे प्यासे
छोड़ दी शर्म ।
176
मानव-रूप
कर्म सब पशु के
खाओ ,सो जाओ ।
177
ईर्ष्या की आग
छुपाए हैं दिल में
घिनौने दाग़
178
हैरान हुआ
टकटकी लगाए
नीला अम्बर ।
179
छाँव या धूप
जीवन के दो साथी
साथ न छोड़ें ।
180
टिड्डी दल आ
लील गया पल में
पूरी फसल।