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लहराती पतंग / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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कुछ लहराती पतंगों ने कल मुझे
बार-बार पास बुलाया, यह कह के
बड़ी ताजगी है हवाओं में
देखो तो थोड़ा हवाओं के साथ में बह के
रात को चाँदनी मुझे कोसती रही
एक खत लिखा था तुम्हें
तुमने पढ़ा नहीं
जिन्दगी की ओस है उसमें
देखों तो उस खत को एक बार पढ़ के आज
कुछ उड़ते बादल नीचे झुके
और मुझ पर बरस पड़े
कमरों की छतें ही होती हैं
क्षितिज नहीं होते
कब तक बैठी रहोगी
अतीत की बाँहों में कसी, नपी छतों के नीचे
लहराती पतंग, खत लिखती चाँदनी, उड़ते बादल
सब मुझे बुलाते रहे
अपने-अपने आकाश से
मैं अस्थिर मन से, घर की स्थिर
छतें देखती रही
खुले आसमान के एक मरे एहसास से।