भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लहरों की पीड़ा भी जानो / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ मेरे भोले मीत ! कभी तो दर्द प्रकृति का पहचानो
तट से टकरा कर टूट गयी लहरों की पीड़ा भी जानो
मत निरखो केवल कलियों का-
खिलना, फूलों का मुस्काना
सतरंगी तुनक तितलियों का-
सौन्दर्य रहा कब अनजाना
लालसा भरी नजरों से ताका करते कुज-करील यहाँ
तुम उनकी मीठी चुभन झेल क्या होती टीस, तनिक जानो
प्यारा लगता कितना वर्षा-
के काले जूड़े का खुलना
फिर कितना अच्छा लगता है
‘गजरों’ का निर्झर-सा झरना
झर बूँद-बूँद रीते हो जाने वाले दानी मेघों की-
रिक्तता जनित वेदना-व्यथा की कथा-कहानी भी जानो
मखमली दूब की फुनगी जब-
चंद्रानन उचक-उचक झाँके
कोई तब पद-नख से ठोकर-
पर ठोकर मारे शरमा के
उस वक्त गुजरती है जो कुछ दूबों के नन्हें-से दिल पर
धरती से पूछो, नहीं बताये तो थोड़ा-सा हठ ठानो
जब कोई नन्हा-सा बिरूआ
छत की छाती को चीर उगे
या दरक गयी दीवारों से-
झाँके, काँपे, भयभीत लगे
आघात, उपेक्षा का सहकर, चुटकी से मसले जाने पर
कितनी अपार पीड़ा लेकर मिट जाता है, तुम क्या जानो