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लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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लहरों के सँग बह जाने के अपने ख़तरे हैं।
तट से चिपके रह जाने के अपने ख़तरे हैं।

जो आवाज़ उठाएँगे वो कुचले जायेंगे,
लेकिन सबकुछ सह जाने के अपने ख़तरे हैं।

सबसे आगे थे जो सबसे पहले खेत रहे,
सबसे पीछे रह जाने के अपने ख़तरे हैं।

रोने पर कमज़ोर समझ लेती है ये दुनिया,
आँसू पीकर रह जाने के अपने ख़तरे हैं।

धीरे-धीरे सबका झूठ खुलेगा, पर ‘सज्जन’,
सब कुछ सच-सच कह जाने के अपने ख़तरे हैं।