लहर / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कलेजा कब चिचोरती नहीं
बन चुड़ैलों जैसी बद बहू;
दूध जिस माँ का पीकर पली,
चूस लेती है उसका लहू।
हाथ से जिसके पल जी सकी,
गोद में जिसकी फूली-फली;
बेतहर लुटता है वह बाप,
छुरी गरदन पर उसकी चली।
सगा भाई-जैसा है कौन,
दबाती है उसका भी गला;
सदा जो अपने माने गये,
सिरों पर उनके आरा चला।
देख आँसू न पसीजी कभी,
लाख हैं आँखें फोड़ी गईं;
प्यार से भरी प्यालियाँ बहुत
सितम-हाथों से तोड़ी गईं।
कलेजे कितने कुचले गए,
चाहतें कितनी ही पिस गईं;
फूल सी खिलती कितनी आस
चुटकियों में उसकी मिस गईं।
छिन गये लाखों मुख के कौर,
पेट कितने ही काटे कटे;
हो गये वे कौड़ी के तीन,
जो न तीनों लोकों में एटे।
बन गये कितने हीरे-कनी,
कलेजे पत्थर जैसे हिले;
लगाए उसके लागें लगीं,
लाख हा लोग धूल में मिले।
है सितम, साँसत पत्थर निरी,
काल साँपिनी, फूटती लवर;
जब मिली, मिली लहू से भरी,
किसी लोभी के मन की लहर।