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लाईलाज / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
पता नहीं चलता कुछ व्याधियों का
दबी-दुबकी रहती हैं भीतर
बिल्ली बराघ की तरह
झपटती है यकदम
दबोच लेती है
भला-चंगा आदमी हो जाता है पस्त
गिर जाता है चलते-चलते।
जैसे मेरे भीतर
बैठा हुआ डर
एपेंडिक्स की तरह दर्द करता है
जैसे में बोल नहीं पाता सच
कह भी नहीं पाता झूठ।
भीतर धीरे-धीरे टूट रही नसें
घिसते चुकते जा रहे अवयव
पता नहीं चलता
जैसे भीतर की बात नहीं आती बाहर
या आती है तो यकदम आती है
लाल रहने पर भी लहु
होता जाता पानी
ठण्डा पड़ता जाता।
आधे लड़े युद्धों के बाद
पता चलता है अंत में
डॉक्टर कहते हैं:
आप को पता नहीं चला
यह बीमारी है आप में जन्म से
पैतृक होती है यह
आई होगी माता पिता या
निकट संबंधी से
है अब है क्रानिक डिजीज
सालों पुरानी
अब नहीं है कोई इलाज।